एक खुली किताब हूँ मैं।
पढ़ने खुदको खुद ही कितना बेताब हूँ मैं।
हर मोड़ पे गिरे हुए है कुछ पन्ने,
जिन पे लिखा हुआ वो खिताब हूँ मैं।
हर पन्ना ऐसे मुस्कुरा रहा है जैसे,
खुशियो से चमकता आफताब हूँ मैं।
पन्नो पे मैं श्याही सा चमकता,
रोशनी से झिलमिलाता मेहताब हूँ मैं।
लिखे है कुछ दर्द कही कोनो में,
जिन कोनो में छिपा सैलाब हूँ मैं।
कभी बह रहा एक झील सा,
तो कभी एक शांत तालाब हूँ मैं।
मैं अनंत हूँ कोई आम किताब नही,
पढोगे तो जानोगे एक नशीली शराब हूँ मैं।।
~सूर्यकान्त त्रिपाठी अलबेला
पढ़ने खुदको खुद ही कितना बेताब हूँ मैं।
हर मोड़ पे गिरे हुए है कुछ पन्ने,
जिन पे लिखा हुआ वो खिताब हूँ मैं।
हर पन्ना ऐसे मुस्कुरा रहा है जैसे,
खुशियो से चमकता आफताब हूँ मैं।
पन्नो पे मैं श्याही सा चमकता,
रोशनी से झिलमिलाता मेहताब हूँ मैं।
लिखे है कुछ दर्द कही कोनो में,
जिन कोनो में छिपा सैलाब हूँ मैं।
कभी बह रहा एक झील सा,
तो कभी एक शांत तालाब हूँ मैं।
मैं अनंत हूँ कोई आम किताब नही,
पढोगे तो जानोगे एक नशीली शराब हूँ मैं।।
~सूर्यकान्त त्रिपाठी अलबेला